Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


रंगभूमि अध्याय 12

प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चले, तो पिता पर झल्लाए हुए थे-यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँ, अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँ, हिस्से बेचता फिरूँ, पत्रों में विज्ञापन छपवाऊँ, बस सिगरेट की डिबिया बन जाऊँ। यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं धन कमाने की कल नहीं हूँ, मनुष्य हूँ, धन-लिप्सा अभी तक मेरे भावों को कुचल नहीं पाई है। अगर मैं अपनी ईश्वरदत्ता रचना-शक्ति से काम न लूँ, तो यह मेरी कृतघ्नता होगी। प्रकृति ने मुझे धनोपार्जन के लिए बनाया ही नहीं; नहीं तो वह मुझे इन भावों से क्यों भूषित करती। कहते तो हैं कि अब मुझे धन की क्या चिंता, थोड़े दिनों का मेहमान हूँ, मानो ये सब तैयारियाँ मेरे लिए हो रही हैं। लेकिन अभी कह दूँ कि आप मेरे लिए यह कष्ट न उठाइए, मैं जिस दशा में हूँ, उसी में प्रसन्न हूँ, तो कुहराम मच जाए! अच्छी विपत्ति गले पड़ी, जाकर देहातियों पर रोब जमाइए, उन्हें धमकाइए, उनको गालियाँ सुनाइए। क्यों? इन सबों ने कोई नई बात नहीं की है। कोई उनकी जायदाद पर जबरदस्ती हाथ बढ़ाएगा, तो वे लड़ने पर उतारू हो ही जाएँगे। अपने स्वत्वों की रक्षा करने का उनके पास और साधन ही क्या है? मेरे मकान पर आज कोई अधिकार करना चाहे, तो मैं कभी चुपचाप न बैठूँगा। धैर्य तो नैराश्य की अंतिम अवस्था का नाम है। जब तक हम निरुपाय नहीं हो जाते, धैर्य की शरण नहीं लेते। इन मियाँजी को भी जरा-सी चोट आ गई, तो फरियाद लेकर पहुँचे। खुशामदी है, चापलूसी से अपना विश्वास जमाना चाहता है। आपको भी गरीबों पर रोब जमाने की धुन सवार होगी। मिलकर नहीं रहते बनता। पापा की भी यही इच्छा है। खुदा करे, सब-के-सब बिगड़ खड़े हों, गोदाम में आग लगा दें और इस महाशय की ऐसी खबर लें कि यहाँ से भागते ही बने। ताहिर अली से सरोष होकर बोले-क्या बात हुई कि सब-के-सब बिगड़ खड़े हुए?

ताहिर-हुजूर, बिल्कुल बेसबब। मैं तो खुद ही इन सबों से जान बचाता रहता हूँ।
प्रभु सेवक-किसी कार्य के लिए कारण का होना आवश्यक है; पर आज मालूम हुआ कि वह भी दार्शनिक रहस्य है, क्यों?
ताहिर-(बात न समझकर) जी हाँ, और क्या!
प्रभुसेवक-जी हाँ, और क्या के क्या मानी? क्या आप बात भी नहीं समझते, या बहरेपन का रोग है? मैं कहता हूँ, बिना चिनगारी के आग नहीं लग सकती; आप फरमाते हैं, जी हाँ, और क्या। आपने कहाँ तक शिक्षा पाई है?
ताहिर-(कातर स्वर से) हुजूर, मिडिल तक तालीम पाई थी, पर बदकिस्मती से पास न हो सका। मगर जो काम कर सकता हूँ, वह मिडिल पास कर दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूँ। बहुत दिनों तक चुंगी में मुंशी रह चुका हूँ।
प्रभु सेवक-तो फिर आपके पांडित्य और विद्वता पर किसे शंका हो सकती है! आपके कथन के आधार पर मुझे मान लेना चाहिए कि आप शांत बैठे हुए पुस्तकावलोकन में मग्न थे, या सम्भवत: ईश्वर-भजन में तन्मय हो रहे थे, और विद्रोहियों का एक सशस्त्र दल पहुँचकर आप पर हमले करने लगा।
ताहिर-हुजूर तो खुद ही चल रहे हैं, मैं क्या अर्ज करूँ, तहकीकात कर लीजिएगा।
प्रभु सेवक-सूर्य को सिध्द करने के लिए दीपक की जरूरत नहीं होती। देहाती लोग प्राय: बड़े शांतिप्रिय होते हैं। जब तक उन्हें भड़काया न जाए, लड़ाई-दंगा नहीं करते। आपकी तरह उन्हें ईश्वर-भजन से रोटियाँ नहीं मिलतीं। सारे दिन सिर खपाते हैं, तब रोटियाँ नसीब होती हैं। आश्चर्य है कि आपके सिर पर जो कुछ गुजरी, उसके कारण भी नहीं बता सकते। इसका आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि या तो आपको खुदा ने बहुत मोटी बुध्दि दी है, या आप अपना रोब जमाने के लिए लोगों पर अनुचित दबाव डालते हैं।
ताहिर-हुजूर, झगड़ा लड़कों से शुरू हुआ। मुहल्ले के कई लड़के मेरे लड़कों को मार रहे थे। मैंने जाकर उन सबों की गोशमाली कर दी। बस,इतनी जरा-सी बात पर लोग चढ़ आए।
प्रभु सेवक-धन्य हैं, आपके साथ भगवान् ने उतना अन्याय नहीं किया है, जितना मैं समझता था। आपके लड़कों में और मुहल्ले के लड़कों में मार-पीट हो रही थी। अपने लड़कों के रोने की आवाज सुनी और आपका खून उबलने लगा। देहातियों के लड़कों की इतनी हिम्मत कि आपके लड़कों को मारें! खुदा का गजब! आपकी शराफत यह अत्याचार न सह सकी। आपने औचित्य, दूरदर्शिता और सहज बुध्दि को समेटकर ताक पर रख दिया और उन दुस्साहसी लड़कों को मारने दौड़े। तो अगर आप-जैसे सभ्य पुरुष को बाल-संग्राम में हस्तक्षेप करते देखकर और लोग भी आपका अनुसरण करें, तो आपको शिकायत न होनी चाहिए। आपको दुनिया में इतने दिनों तक रहने के बाद यह अनुभव हो जाना चाहिए था कि लड़कों के बीच में बूढ़ों को न पड़ना चाहिए। इसका नतीजा बुरा होता है। मगर आप इस अनुभव से वंचित थे, तो आपको इस पाठ के लिए प्रसन्न होना चाहिए, जिससे आपको एक परमावश्यक और महत्व पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके लिए फरियाद करने की जरूरत न थी।
फिटन उड़ी जाती थी और उसके साथ ताहिर अली के होश भी उड़े जाते थे-मैं समझता था, इन हज़रत में ज्यादा इंसानियत होगी; पर देखता हूँ तो यह अपने बाप से भी दो अंगुल ऊँचे हैं। न हारी मानते हैं, न जीती। ये ताने बर्दाश्त नहीं हो सकते। कुछ मुफ्त में तनख्वाह नहीं देते। काम करता हूँ, मजदूरी लेता हूँ। तानों-ही-तानों में मुझे कमीना, अहमक, जाहिल, सब कुछ बना डाला। अभी उम्र में मुझसे कितने छोटे हैं! माहिर से दो-चार साल बड़े होंगे; मगर मुझे इस तरह आड़े हाथों ले रहे हैं, गोया मैं नादान बच्चा हूँ! दौलत ज्यादा होने से अक्ल भी ज्यादा हो जाती है। चैन से जिंदगी बसर होती है, जभी ये बातें सूझ रही हैं। रोटियों के लिए ठोकरें खानी पड़तीं, तो मालूम होता, तजुर्बा क्या चीज है। आप कोई बात एतराज के लायक देखें, तो उसे समझाने का हक है, इसकी मुझे शिकायत नहीं; पर जो कुछ कहो, नरमी और हमदर्दी के साथ। यह नहीं कि जहर उगलने लगो, कलेजे को चलनी बना डालो।
ये बातें हो रही थीं कि पाँड़ेपुर आ पहुँचा। सूरदास आज बहुत प्रसन्नचित्ता नजर आता था। और दिन सवारियों के निकल जाने के बाद दौड़ता था। आज आगे ही से उनका स्वागत किया, फिटन देखते ही दौड़ा। प्रभु सेवक ने फिटन रोक दी और कर्कश स्वर में बोले-क्यों सूरदास,माँगते हो भीख, बनते हो साधु और काम करते हो बदमाशों का? मुझसे फौजदारी करने का हौसला हुआ है?
सूरदास-कैसी फौजदारी हुजूर? मैं अंधा-अपाहिज आदमी भला क्या फौजदारी करूँगा।
प्रभु सेवक-तुम्हीं ने तो मुहल्लेवालों को साथ लेकर मेरे मुंशीजी पर हमला किया था और गोदाम में आग लगाने को तैयार थे?
सूरदास-सरकार, भगवान से कहता हूँ, मैं नहीं था। आप लोगों का माँगता हूँ, जान-माल का कल्यान मनाता हूँ, मैं क्या फौजदारी करूँगा?
प्रभु सेवक-क्यों मुंशीजी, यही अगुआ था न?
ताहिर-नहीं हुजूर, इशारा इसी का था, पर यह वहाँ न था।

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